भूल गया शहर(forgotten city)
सूरज की रौशनी धीरे-धीरे उसकी पलकों के नीचे घुसती जा रही थी। वो जागा, लेकिन उसे महसूस हुआ कि ये जागना साधारण नहीं था। चारों तरफ धुंध फैली थी — न ज़्यादा घनी, न पूरी तरह से हल्की। सामने एक गली थी — पतली, टेढ़ी-मेढ़ी, पुराने जमाने के मकान, जिनकी दीवारों से रंग छिल रहा था।
उसे समझ नहीं आया कि ये चेतावनी थी या दुआ।
“मुझे नहीं पता,” उसने सच-सच कहा।
“मतलब?” वो चौंका।
चायवाले ने सिर झुका लिया। कुछ जवाब नहीं दिया।
उसने शहर को खंगालना शुरू किया। सड़कों पर पुराने पोस्टर लगे थे, जिन पर तारीख़ें धुंधली थीं। दुकानों के नाम कुछ पुराने से लगे — जैसे किसी पुराने ज़माने की फिल्म देख रहा हो।
एक जगह उसे एक पुरानी लाइब्रेरी मिली। अंदर एक बुढ़ा आदमी बैठा था। उसने बिना कुछ कहे उसकी तरफ देखा और बोला:
“तू पहली बार नहीं आया, और शायद आख़िरी बार भी नहीं।”
“आप जानते हैं मुझे?” वो घबराया।
बूढ़ा आदमी धीरे से मुस्कराया, जैसे दुख को निगल रहा हो।
“ये शहर सब कुछ भुला देता है... मगर खुद को नहीं भूलता।”
रात में वो एक पुराने होटल में ठहरा। कमरे की खिड़की से पूरा शहर झिलमिलाता हुआ लग रहा था। लेकिन उस चमक में कोई राहत नहीं थी — जैसे हर रौशनी किसी सच्चाई को छिपा रही हो।
रात के तीन बजे उसकी नींद टूटी — एक आवाज़ ने उसे पुकारा था।
“वापस मत जाना…”
वही शब्द, जो उस कागज पर थे। पर अब आवाज़ एकदम साफ थी। उसने खिड़की से झांक कर देखा — गली में कोई और नहीं, सिर्फ़ वो खुद खड़ा था।
एक दूसरा "वो"।
वो भाग कर नीचे पहुंचा, पर वहां कोई नहीं था। पर फर्श पर वही कागज पड़ा था — अबकी बार कुछ और लिखा था:
“जो याद आए, उसे पकड़ना नहीं। बस गुजर जाना।”
अगले दिन उसने कुछ लोगों से पूछा, “क्या आपको भी अपना अतीत याद नहीं?”
एक महिला बोली, “यहां सब भूल चुके हैं। शायद इसलिए हम यहां हैं।”
“लेकिन ये शहर है कौन सा?”
कोई जवाब नहीं दे पाया। सबने सिर झुका लिया।
उसे समझ आया — ये भूल गया शहर है। ऐसा शहर, जो हर उस इंसान को अपने भीतर खींच लेता है, जो अपनी ज़िन्दगी से भाग रहा हो। जो अपनी सच्चाई से डरता हो, वो यहां आकर सब भूल जाता है।
धीरे-धीरे टुकड़ों में उसे कुछ याद आने लगा।
एक गाड़ी… एक एक्सीडेंट… एक लड़की की चीख… और खून।
शायद वो भागा था — खुद से, अपनी गलती से। और तभी ये शहर मिल गया, जो सब भूलने की इजाज़त देता है। लेकिन हर रोज़ कोई ना कोई चीज़ उसे याद दिला रही थी कि वो कौन था, और उसने क्या खोया।
अंत में, वो उसी जगह वापस गया जहां पहली बार जागा था। गली अब और भी सुनसान थी।
वहां एक दरवाज़ा दिखा — लकड़ी का, आधा खुला।
उसने दरवाज़ा खोला।
अंदर एक शीशा रखा था।
उसने उसमें देखा — खुद को देखा। पर इस बार चेहरा जाना-पहचाना लगा।
“शिव,” उसने खुद से कहा।
“मैं शिव हूं। मैंने किसी को मारा नहीं… लेकिन मैंने माफ़ नहीं किया।”
उसकी आंखों से आंसू बहने लगे।
शीशे पर लिखा था:
“अब जा सकता है।”
और जैसे ही उसने मुड़कर गली की तरफ देखा — शहर गायब हो चुका था।
अब उसके सामने एक हरा-भरा मैदान था। चिड़ियों की आवाज़, सूरज की गर्मी, और हवा का स्पर्श… सब असली लग रहा था।
वो लौट आया था। खुद के पास।